निद्रा (महाभारत संदर्भ)

  • ह्रतस्वं कामिनं चोरमाविशंति प्रजागरा:।[1]

कामुक, चोर जिसका धन हर लिया गया उसको नींद नहीं आती।

  • नैक: सुप्तेषु जागृयात्।[2]

सभी सो रहें हों तो अकेला न जागे।

  • न वै भिन्ना जातु निद्रां लभंते।[3]

जिन मे आपस में फूट पड़ी है उनको नींद नहीं आती है।

  • न स्वप्नेन जयेत्रिद्राम्।[4]

अधिक सोकर नींद को वश में करने का प्रयत्न न करें।

  • आतुरस्य कुतो निद्रा नरस्यामर्षितस्य च्।[5]

शरीर और मन के रोग से दु:खी और क्रोध में भरे हुए को नींद कहाँ

  • त्वरमाणस्य कुतो निद्रा कुत: सुखम्।[6]

सदा शीघ्रता करने वाले को नींद कहाँ और सुख कहाँ?

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उद्योगपर्व महाभारत 33.13
  2. उद्योगपर्व महाभारत 33.46
  3. उद्योगपर्व महाभारत 36.55
  4. उद्योगपर्व महाभारत 39.81
  5. सौप्तिकपर्व महाभारत 4.22
  6. सौप्तिकपर्व महाभारत 5.28

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