- विविनक्ति न शौचं य: सोऽन्यत्रापि कथं भवेत्।[1]
जो शुद्धि का विचार नहीं करता उसके दूसरे काम भी न जाने कैसे होंगे।
- मनो ह्यदुष्टं शौचाय पर्याप्तम्।[2]
पवित्रता के लिये शुद्ध मन पर्याप्त है। (मन शुद्ध है तो सब शुद्ध है।)
- शम: शौचस्य लक्षणम्।[3]
मन को वश में रखना पवित्रता है।
- शौचमेव परं तेषां येषां नोत्पद्यते स्पृहा।[4]
जिनके मन में कोई कामना पैदा ही नहीं होती वे परम पवित्र ही है
- ज्ञानोत्पन्नं च यच्छौचं तच्छौचं परमं स्मृतम्।[5]
ज्ञान से प्राप्त होने वाली शुद्धि ही सबसे उत्तम मानी जाती है।
- तुल्यं यज्ञश्च सत्यं च हृदयस्य च शुद्धता।[6]
यज्ञ करना, सत्य बोलना तथा हृदय की शुद्धि तीनों समान हैं।
- चोक्षाणां हृदयं शुचि:।[7]
हृदय की पवित्रता सबसे बड़ी पवित्रता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 166.17
- ↑ वनपर्व महाभारत 93.22
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 22.25
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 108.10
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 108.12
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 127.18
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 162.47
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