- अतीव जल्पन् दुर्वाचो भवतीह विहेठक:।[1]
संसार में अधिक कटुवचन बोलने वाला दूसरों को कष्ट देता है।
- नारुंतुद:स्यान नृशंसवादी।[2]
क्रोधवश किसी के मर्मस्थान को चोट पहुँचाएँ, कठोर वाणी न बोलें।
- अमित्रतां याति नरोऽक्षमं ब्रुवन्।[3]
अक्षम्य कटुवचन बोलने वाले से मित्रता समाप्त हो जाती है।
- दुरुक्तं क्षम्यताम्।[4]
कटुवचनों को क्षमा करें।
- वाक्सायका वदनान्निषपतंति यैराहत: शोचति रात्र्यहानि।[5]
वाग्बाण मुख से निकलते हैं उनसे आहत ऋजु दिन-रात शोक करता है।
- रुक्षां वाचं रुषतीं वर्जयीत।[6]
रूखी और रोषभरी वाणी को त्याग दें।
- मर्माण्यस्थीनि हृदयं तथासून रूक्षा वाचो निद्रहन्तीय पुंसाम्।[7]
संसार मे रूखी वाणी मर्मस्थान, हड्डी हृदय और प्राणो को जलाती है।
- वाक्शल्यं मनसो जरा।[8]
कटुवचन मन को जीर्ण-शीर्ण कर देते हैं।
- वाचा दुरुक्तं बीभत्सं न संरोहति वाक्क्षतम्।[9]
दुर्वचनरूपी शस्त्र से किया गया भयंकर घाव कभी नहीं भरता।
- वाक्शल्यस्तु न निर्हर्तु शक्यो हृदिशयो हि स:।[10]
वचनरूपी बाण को निकाला नहीं जा सकता, वह हृदय में चुभा होता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 74.89
- ↑ आदिपर्व महाभारत 87.8
- ↑ सभापर्व महाभारत 64.5
- ↑ वनपर्व महाभारत 147.23
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 34.80
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 36.6
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 36.7
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 39.77
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 104.33
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 104.34
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