गुण (महाभारत संदर्भ)

  • अनारम्भे हि नियतो भवेदगुणनिश्चय:।[1]

ऋजु यदि कार्य आरम्भ ही नहीं करता तो निश्चय ही उसमें गुण नहीं है।

  • रोचतां वो गुणाधिकम्।[2]

जो अधिक गुणवान् हो वह तुम्हें अच्छा लगना चाहिये।

  • शत्रोरपि गुणा ग्राह्या दोषा वाच्या गुरोरपि।[3]

शत्रु के भी गुण ग्रहण करने चाहिये गुरु के भी दोष बोल देने चाहिये।

  • गुणानां रक्षणे नित्यं प्रयतस्व।[4]

गुणों की रक्षा के लिये प्रयत्न करो।

  • गुणान् गुणवतां शल्य गुणवान् वेत्ति नागुण:।[5]

शल्य! गुणवान व्यक्ति के गुणों को गुणवान् ही जानता है गुणहीन नहीं|

  • नात्यंत गुणवत् किञ्चिन्न चाप्यंतनिर्गुणम्।[6]

कुछ भी ऐसा नहीं जिसमें केवल गुण ही गुण हों या केवल दोष ही दोष।

  • गुणयुत्क्तिपि नैकस्मिन् विश्वसेत विचक्षण:।[7]

ऋजु गुणवान् हो तो भी अकेले ऋजु पर बुध्दिमान् व्यक्ति विश्वास न करे।

  • गुणान् ब्रूयान्न चात्मन:।[8]

गुणगान तो करें परंतु अपना स्वयं का नहीं।

  • इत्यस्मीति वदेदेवं परेषां कीर्ततयेद् गुणान्।[9]

औरों का गुणगान करे और सदा बोले कि मैं हूँ ना।

  • स्वगुणैरेव मार्गेत विप्रकर्षे पृथग्जनात्।[10]

अपने गुणों से ही लोगों से अपनी श्रेष्ठता सिध्द करने का प्रयास करें।

  • विपश्चिद् गुणसम्पन्न: प्राप्नोत्येव महद् यश:।[11]

गुणसम्पन्न विद्वान् मनुष्य महान् यश पा ही लेता है।

  • गुणार्थिनां गुण: कार्य:।[12]

जो गुणवान् बनना चाहते हों उनकी गुणवान् बनने में सहायता करें।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सभापर्व महाभारत 16.16
  2. वनपर्व महाभारत 185.4
  3. विराटपर्व महाभारत 51.15
  4. उद्योगपर्व महाभारत 87.4
  5. कर्णपर्व महाभारत 40.2
  6. शांतिपर्व महाभारत 15.50
  7. शांतिपर्व महाभारत 24.18
  8. शांतिपर्व महाभारत 70.6
  9. शांतिपर्व महाभारत 134.14
  10. शांतिपर्व महाभारत 287.25
  11. शांतिपर्व महाभारत 287.28
  12. आश्रमवासिकपर्व महाभारत 5.43

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