- धर्मोपघाताद्धि मन: समुपतप्यते।[1]
धर्म में बाधा डालने से मन को पीड़ा होती है।
- न जातु कामात्र भयात्र लोभाद् धर्म जह्माज्जीवितस्यापि हेतो:।[2]
कामना, भय, लोभ या जीवनरक्षा के लिये धर्म का कभी त्याग न करें
- पितामहैराचरितं न धर्म हातुमर्हथ।[3]
बाप-दादाओं के द्वारा आचरण में लाये गये धर्म को मत त्यागो।
- न कामाद् भयाल्लोभात् क्रोधात् वा धर्ममुत्सृजेत्।[4]
कामना, भय, लोभ या क्रोध के कारण धर्म न छोड़े।
- न कार्यं धर्मबाधकम्।[5]
ऐसा कार्य न करो जिससे धर्म में बाधा उत्पन्न होती हो।
- न द्वेषाद् धर्ममुत्सृजेत्।[6]
द्वेष के कारण धर्म न छोड़े।
- धर्मार्थपरित्यागात् प्रज्ञानाशामिहाच्लृति।[7]
धर्म और धन दोनों के त्याग से ऋजु की बुद्धि नष्ट हो जाती है।
- धर्म्यं पंथानमाक्राम्य सानुबंधो विनश्यति।[8]
ऋजु धर्म का मार्ग त्याग कर परिवार सहित नष्ट हो जाता है।
- धर्म वै शाश्वतं लोके न जह्माद् धनकांक्षया।[9]
संसार मे धर्म स्थायी है इसका धन के लोभ में त्याग न करे।
- त्यज धर्ममसंकल्पादधर्म चाप्यलिप्सया।[10]
कामना त्याग कर धर्म को त्याग दो और लालसा को त्याग कर अधर्म
- नावमन्यस्व धर्मान्।[11]
धर्मों का अपमान मत करो।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सभापर्व महाभारत 22.3
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 40.12
- ↑ कर्णपर्व महाभारत 93.58
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 80.27
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 86.23
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 93.9
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 123.15
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 212.7
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 292.19
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 329.41
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 71.46
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