आसक्त (महाभारत संदर्भ)

  • नाभिष्वजेत् परं वाचा कर्मणा मनसापि वा। [1]

मन, वाणी और क्रिया द्वारा किसी में आसक्त न हों।

  • प्रसक्तबुद्धिर्वियेषु यो नरो न बुध्यते ह्यात्महितं कथंचन।[2]

विषयों में आसक्त मनुष्य किसी भी प्रकार अपना हित नहीं समझ सकता।

  • सक्तस्य बुद्धिश्चलति मोहजालविवर्धनी। [3]

आसक्त की बुद्धि चंचल होती है वह मोह के जाल को बढ़ाती है।

  • पुत्रदार कुटुम्बेषु सक्ता: सीदंति जंतव:। [4]

पुत्र, स्त्री और परिवार में आसक्त प्राणी दु:ख भोगते हैं।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शांतिपर्व महाभारत240.29
  2. शांंतिपर्व महाभारत298.15
  3. शांतिपर्व महाभारत329.9
  4. शांतिपर्व महाभारत329.30

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