- प्रियवचनवादि प्रियो भवति:।[1]
मीठे वचन बोलने वाला सबका प्रिय होता है।
- लभ्यते खलु पापीयान् नरो नु प्रियवागिह।[2]
पापी लोग भी मन को प्रिय लगने वाले वचन बोलते हुए मिल जायगें।
- सुलभा: पुरुषा राजन् सततं प्रियवादिन:।[3]
राजन्! निरंतर प्रिय वचन बोलने वाले मनुष्य सुलभ हैं।
- प्रियं ब्रूयादकृपण:।[4]
अपने अंदर दीनता न लाते हुए प्रियवचन बोलें।
- तवास्मीति वदेन्नित्यं परेषां कीर्तयन् गुणान्।[5]
सदा दूसरों के गुणों का वर्णन करे और कहे कि मैं आपका ही हूँ।
- वात्सल्यात्सर्वभूतेभ्यो वाच्या: श्रोत्रसुखा गिर:।[6]
सभी प्राणियों के लिये प्यार से मीठी वाणी बोलनी चाहिये।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत 313.113
- ↑ सभापर्व महाभारत 64.16
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 37.15
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 70.4
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 123.23
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 191.14
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