आत्महित (महाभारत संदर्भ)

  • आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्। [1]

अपने हित के लिये पृथ्वी को भी त्याग दें।

  • भार्या पुत्रोऽथ दुहिता सर्वमात्मार्थमिष्यते। [2]

पत्नी, पुत्र और पुत्री सब की अपने लिये ही इच्छा की जाती है।

  • पर्यवस्थापयात्मानम्। [3]

अपने आप को सम्भालो।

  • सर्वस्वमपि संत्यज्य कार्यमात्महितं नरै:। [4]

मनुष्य को सर्वस्व का त्याग करके भी अपना हित करना चाहिये।

  • उद्धरेद् दीनमात्मानं समर्थो धर्ममाचरेत्। [5]

दीनदशा से जैसे भी हो स्वयं का उद्धार करें, समर्थ होने पर धर्म करें।

  • आत्मा वै शक्यते त्रातुं कर्मभि: शुभलक्षणै:। [6]

शुभकर्मों के द्वारा आत्मा का उद्धार किया जा सकता है।

  • जरामरणरोगेभ्य: प्रियमात्मानमुद्धरेत्।[7]

जरा, मृत्यु और रोगों से अपने प्रिय आत्मा का उद्धार करें।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आदिपर्व महाभारत 80.17
  2. आदिपर्व महाभारत 157.3
  3. कर्णपर्व महाभारत 9.2
  4. शांतिपर्व महाभारत 139.84
  5. शांतिपर्व महाभारत 140.38
  6. शांतिपर्व महाभारत 297.32
  7. शांतिपर्व महाभारत 331.2

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