स्नेह (महाभारत संदर्भ)

  • दीनतो बालतश्चैव स्नेहं कुर्वंति मानवा:। [1]

दीन और बालक पर मनुष्य अधिक स्नेह करते हैं।

  • मनसो दु:खमूलं तु स्नेह इत्युपलभ्यते। [2]

मन के दुखों का मूल कारण स्नेह ही है ऐसा समझ में आता है।

  • शोकहर्षो तथाऽऽयास: सर्वं स्नेहात् प्रवर्तते। [3]

शोक, हर्ष और थकान सब स्नेह से ही होते हैं।

  • स्नेहं न लिप्सेत मित्रेभ्यो धनसंचयात्। [4]

धन और मित्रों से स्नेह न रखें।

  • स्नेहेन युक्तस्य न चास्ति मुक्ति:। [5]

स्नेह वाले मनुष्य की मुक्ति नहीं हो सकती।

  • स्नेहेन तिलवत् सर्वं सर्गचक्रे निपीड्यते। [6]

स्नेह के कारण सभी संसार चक्र में तिल की भाँति पिस रहे हैं।

  • अस्निग्धाश्चैव दुष्तोषा:। [7]

जो स्नेह नहीं करते उनको संतुष्ट करना कठिन है।

  • संवासाज्जायते स्नेहो जीवितांतकरेष्वपि। [8]

एक-दूसरे को मारनेके इच्छुक भी साथ रहें तो स्नेह उत्पन्न हो जाता है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आदिपर्व महाभारत155.9
  2. वनपर्व महाभारत2.27
  3. वनपर्व महाभारत2.28
  4. वनपर्व महाभारत2.32
  5. शान्तिपर्व महाभारत167.46
  6. शांतिपर्व महाभारत174.24
  7. शांतिपर्व महाभारत111.84
  8. शांतिपर्व महाभारत139.40

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