- उत्थानमभिजानंति सर्वभूतानि। [1]
सभी प्राणी अपनी उन्नति को समझते हैं।
- परस्परं भावयंत: श्रेय: परमवाप्स्यथ:। [2]
एक-दूसरे की उन्नति करने में परम कल्याण होगा।
- उत्कर्षार्थं प्रयतेत नर: पुण्येन कर्मणा। [3]
मनुष्य पुण्यकर्मों के द्वारा सदा अपनी उन्नति का प्रयत्न करे।
- न तु वृद्धिमिहाविंच्छेत् कर्म कृत्वा जुगुप्सितम्। [4]
निंदनीय कर्म के द्वारा संसार में अपनी उन्नति की कामना न करें।
- उन्नमंति यथासंतमाश्रित्येह स्वकर्मसु। [5]
संतों का आश्रय लेकर अपने कर्मों में लगे रहने से उन्नति होती है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत32.6
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत27.11
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत291.3
- ↑ शांतिपर्व महाभारत292.18
- ↑ शांतिपर्व महाभारत296.26
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