- यदिदं ब्रह्मणो रूपं ब्रह्मचर्यमिति स्मृतम्।[1]
ब्रह्मचर्य को ब्रह्म का ही स्वरूप बताया गया है।
- सुदुष्करं ब्रह्मचर्यम्।[2]
ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना अतिकठिन है।
- ब्रह्मचर्य परो धर्म:।[3]
ब्रह्मचर्य महान धर्म है।
- ब्रह्मचर्य दहेद् राजन् सर्वपापान्युपासितम्।[4]
राजन्! ब्रह्मचर्य का पालन किया जाये तो वह सभी पापों को जला देता है
- ब्रह्मचर्य परं तात मधुमांसस्य वर्जनम्।[5]
तात! मांस और मदिरा का त्याग ही श्रेष्ठ ब्रह्मचर्य है।
- ब्रह्मचरी सदैवैष य इंद्रिजयजे रत:।[6]
जो इंद्रियों के संयम में लगा रहता है वह सदा ब्रह्मचारी ही है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 214.7
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 214.11
- ↑ आदिपर्व महाभारत 169.71
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 75.37
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 22.25
- ↑ आश्वमेधिकपर्व महाभारत 26.15
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