- साधुसमारम्भाद् बुद्धिधर्मेषु राजते।[1]
सज्जनों के संग से बुद्धि धर्म में लग जाती है।
- न चाफलं सत्पुरुषेण संगतम्।[2]
सज्जनों का संग व्यर्थ नहीं होता।
- सतां संगतं लिप्सितव्यम्।[3]
संतों के संग की कामना करनी चाहिये।
- महार्थवत् सत्पुरुषेण संगतम्।[4]
संतो के संग का महान् लाभ होता है।
- यौनात् सम्बंधकाल्लोके विशिष्टं संगतं सताम्।[5]
सज्जनों से की गई मित्रता संसार में पारिवारिक सम्बंधों से भी श्रेष्ठ है।
- सद्भिस्तु सह संसर्ग: शोभते धर्मदर्शिभि:।[6]
धर्म पर दृष्टि रखने वालों को सज्जनों के साथ रहना ही शोभा देता है।
- विमलात्मा च भवति समेत्य विमलात्मना।[7]
निर्मलात्मा के साथ रहने से मनुष्य निर्मल हो जाता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत 210.12
- ↑ वनपर्व महाभारत 297.30
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 10.23
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 10.24
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 4.13
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 293.3
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 308.29
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