सम्मान (महाभारत संदर्भ)

  • न मान्यमानो मुदमाददीत न संतापं प्राप्नुयाच्चावमानात्।[1]

सम्मानित होकर प्रसन्न न हो तथा अपमानित होकर दु:खी ना हो।

  • मान्यमानयिता जन्म कुले महति विंदति।[2]

जो माननीय का सम्मान करता है वह महान् कुल में जन्म पाता है।

  • मानं हित्वा प्रियो भवति।[3]

अभिमान को त्याग देने से मनुष्य (सबका) प्रिय हो जाता है।

  • यमप्रयतमानं तु मानयंति स मानित:।[4]

प्रयत्न न करने पर भी जिसे सम्मान मिलता है वही सच में सम्मानित है।

  • न मान्यमानो मन्यते न मान्यमभिसंज्वरेत्।[5]

सम्मान पाकर अभिमान न करे तथा औरों का सम्मान होते देखकर न जले

  • विद्वासों मानयंतीह इति मन्येत मानित:।[6]

सम्मान मिले तो मानना चाहिये कि विद्वान् सब का सम्मान ही करते हैं।

  • न मान्यं मानयिष्यंति मान्यानावमानिन:।[7]

अपमान करना जिनका स्वभाव है वे किसी मान्य का आदर नहीं कर पाते

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आदिपर्व महाभारत 90.25
  2. वनपर्व महाभारत 259.25
  3. वनपर्व महाभारत 313.78
  4. उद्योगपर्व महाभारत 42.41
  5. उद्योगपर्व महाभारत 42.41
  6. उद्योगपर्व महाभारत 42.42
  7. उद्योगपर्व महाभारत 42.43

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः