भाग्य (महाभारत संदर्भ)

भाग्य = दैव

  • दैवं प्रज्ञाविशेषेण को निवर्तितुमर्हति।[1]

बुद्धि की विशेषता से दैव को कौन मिटा सकता है।

  • सुखं हि जंतुर्यदि वापि दु:खं दैवाधीनं विदंते नात्मशक्त्या।[2]

जीव दैव से ही सुख या दु:ख पाता है अपनी शक्ति से नहीं।

  • दैवोद्दिष्टं नरव्याघ्र कर्मणेहोपपादय।[3]

नरश्रेष्ठ! दैव में जो है, उसे कर्म करके प्रयत्न के द्वारा प्राप्त करो।

  • दैवे पुरुषकारे च लोकोऽयं संप्रतिष्ठित:।[4]

यह संसार दैव और पुरुषार्थ दोनों पर आधारित है।

  • दैवं तु विधिना कालयुक्तेन लभ्यते।[5]

दैव में जो है वह भी तभी मिलता है जब समय पर यत्न किया जाये

  • दैवं हि प्रज्ञां मुष्णाति चक्षुस्तेज इवापतत्।[6]

दैव बुद्धि को हर लेता है जैसे आंखों पर पड़ता पर तेज प्रकाश दृष्टि को

  • न दिष्टमर्थमत्येतुमीशो मर्त्य: कंथचन।[7]

मनुष्य दैव के विधान का किसी भी प्रकार से उल्लंघन नहीं कर सकता

  • दैवं दानफलं प्रोक्तम्।[8]

दान का फल ही दैव होता है। (दान ही भाग्य बनकर मिलता है)

  • बलीय: सर्वतो दिष्टम्।[9]

दैव सबसे बलवान् है।

  • न शक्यते लब्धुमलब्धव्यम्।[10]

जो नहीं मिलना हो वह नहीं मिलता।

  • सर्वथा भागधेयानि स्वानि प्राप्नोति मानव:।[11]

मनुष्य सर्वथा वही पाता है जो उसके भाग्य में होता है।

  • दैवं हि मानुषोपेतं भृशं सिद्ध्यति।[12]

दैव और परिश्रम दोनों मिल जायें तो अवश्य सिद्धि मिलती है।

  • सम्प्रयुक्त: किलैवायं दिर्ष्टैभवति पुरुष:।[13]

पुरुष अवश्य ही दैव से प्रेरित होता है।

  • न चेहानयितुं शक्यं किंचिदप्राप्यमीहितम्।[14]

केवल इच्छा करने मात्र से कोई अप्राप्य वस्तु प्राप्त नहीं की जा सकती

  • दैवं हि जागर्ति स्वपतामपि।[15]

सोने वालों का भी दैव जागता रहता है।

  • नातिभारोऽस्ति दैवस्य ध्रुवम्।[16]

दैव के लिये निश्चय ही कुछ भी कठिन नहीं है।

  • दैवं निश्चितमुच्यते।[17]

जो निश्चित है उसको दैव कहा जाता है।

  • असंशयं दैवपर: क्षिप्रमेव विनश्यति।[18]

दैव पर आश्रित मनुष्य शीघ्र ही मारा जाता है इसमें संशय नहीं।

  • दैवं क्लीबा उपासते।[19]

दुर्बल दैव की उपासना करते हैं। (दैव दैव आलसी पुकारा)

  • परप्रत्यसर्गे तु नियतिर्नानुवर्तते।[20]

ब्रह्मज्ञान हो जाने पर प्रारब्ध अनुसरण नहीं करता। (नष्ट हो जाता है)

  • न दैवमकृते किंचित् कस्यचिद् दातुमर्हति।[21]

कर्म किये बिना दैव किसी को कुछ नहीं दे सकता।

  • लोभमोहसमापन्नं न दैवं त्रायते नरम्।[22]

लोभ और मोह में आसक्त नर को दैव भी नहीं बचा सकता।

  • कर्मक्षयाद् दैवं प्रह्रासमुपगच्छति।[23]

कर्म के समाप्त हो जाने पर दैव भी समाप्त हो जाता है।

  • नाभागधेय: प्राप्नोति धनं सुबलवानापि।[24]

भाग्यहीन व्यक्ति यदि अतिबलवान् हो तो भी उसे धन नहीं मिलता

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आदिपर्व महाभारत 1.246
  2. आदिपर्व महाभारत 89.8
  3. आदिपर्व महाभारत 119.24
  4. आदिपर्व महाभारत 122.21
  5. आदिपर्व महाभारत 122.21
  6. सभापर्व महाभारत 58.18
  7. वनपर्व महाभारत 135.55
  8. वनपर्व महाभारत 313.100
  9. उद्योगपर्व महाभारत 51.47
  10. उद्योगपर्व महाभारत 114.4
  11. उद्योगपर्व महाभारत 175.33
  12. उद्योगपर्व महाभारत 191.15
  13. द्रोणपर्व महाभारत 24.2
  14. द्रोणपर्व महाभारत 71.15
  15. द्रोणपर्व महाभारत 152.32
  16. स्त्रीपर्व महाभारत 25.33
  17. शांतिपर्व महाभारत 36.15
  18. शांतिपर्व महाभारत 105.22
  19. शांतिपर्व महाभारत 139.82
  20. शांतिपर्व महाभारत 217.23
  21. अनुशासनपर्व महाभारत 6.22
  22. अनुशासनपर्व महाभारत 6.42
  23. अनुशासनपर्व महाभारत 6.44
  24. अनुशासनपर्व महाभारत 163.1

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