- भूयांसं लभते क्लेशं या गौर्भवति दुर्दुहा।[1]
जो गाय कठिनाई से दूध देती है उसे बड़े क्लेश उठाने पड़ते हैं।
- ऊधश्छिंद्यात् तु यो धेंवा: क्षीरार्थी न लभते पय:।[2]
दूध चाहने वाला गाय की औड़ी (स्तन) काट कर दूध नहीं ले सकता।
- यो हि दोग्ध्रीमुपासते स च नित्यं विंदते पय:।[3]
जो दूध देने वाली (गाय) की सेवा करता है वही नित्य दूध पाता है।
- किं तैर्येऽनडुहो नोह्या: किं धेंवा वाप्यदुग्धया।[4]
जो भार न ढो सके ऐसा बैल किस काम के तथा जो दूध न दे ऐसी गाय।
- पिबंत्येवोदकं गावो मण्डूकेषु रुवत्स्वपि।[5]
मेढ़कों के टर्र-टर्र करते रहने पर भी गाएं जल पीती ही रहती हैं।
- पय: पिबति यस्तस्या धेनुस्तस्य।[6]
गाय उसी की है जो उसका दूध पीता है (ग्वाले की नहीं)।
- धेनुसहस्रेषु वत्सो विंदति मातरम्।[7]
हजारों गायों में बछड़ा माँ को पा लेता है।
- न हन्याद् गाम्।[8]
गाय को न मारें।
- अमृतं वै गवां क्षीरम्।[9]
गाय का दूध अमृत है।
- संताड्या न तु पादेन गवां मध्ये न च व्रजेत्।[10]
गायों को पैर से स्पर्श न करे, उनके बीच से होकर न निकले।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 67.9
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 71.16
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 71.17
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 78.41
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 141.82
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 174.32
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 181.16
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 22.30
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 66.46
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 69.8
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