- साधुषु वस्तव्यं स वास: श्रेष्ठ उच्यते।[1]
सज्जनों में निवास करना चाहिये वही निवास श्रेष्ठ कहा गया है।
- अहन्यहनि धर्मस्य योनि: साधुसमागम:।[2]
साधु का संग प्रतिदिन धर्म की प्राप्ति कराता है।
- एको हि बहुभि: श्रेयान् विद्वान् साधुरसाधुभि:।[3]
अनेक दुष्टों से एक विद्वान् और साधु अच्छा होता है।
- बुद्धया स्वप्रतिपन्नेषु कुर्यात् साधुष्वनुग्रहम्।[4]
शरण में आये हुए साधुओं पर अपनी बुद्धि से विचार कर दया करे।
- साधुश्चासाधवे साधु: साधवे नाप्नुयात् कथम्।[5]
साधु, साधु के साथ साधुता का व्यवहार करता है तो दुष्ट से क्यों नहीं
- साधुरेव सदा भवेत्।[6]
सदा साधु ही बना रहे।
- साधुसमारम्भाद् बुद्धिर्धर्मेषु राजते।[7]
साधु के संग से बुद्धि धर्म में लगी रहती है।
- सर्वभूतहित: साधु:।[8]
साधु सभी प्राणियों का हित करता है।
- ध्रुवा साधुषु संनति:।[9]
साधु में सदा विनम्रता रहती है।
- मित्रकार्याणि प्रीत्या कुर्वंति साधव:।[10]
साधु मित्र का कार्य प्रेम से करते हैं।
- अव्यक्तं साधुलक्षणम्।[11]
सज्जनों के लक्षण बाहर से व्यक्त नहीं होते। (उनको जानना कठिन है)
- असम्भित्रार्यमर्यादा: साधवा: पुरुषोत्तमा:।[12]
जिन्होंने कभी मर्यादा भंग नहीं की वे पुरुषोत्तम साधु कहलाते हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ=
- ↑ आदिपर्व महाभारत 79.11
- ↑ वनपर्व महाभारत 1.25
- ↑ वनपर्व महाभारत 92.22
- ↑ वनपर्व महाभारत 150.48
- ↑ वनपर्व महाभारत 194.4
- ↑ वनपर्व महाभारत 207.45
- ↑ वनपर्व महाभारत 210.12
- ↑ वनपर्व महाभारत 313.92
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 76.25
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 138.102
- ↑ आश्वमेधिकपर्व महाभारत 43.25
- ↑ आश्रमवासिकपर्व महाभारत 12.2
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