- नान्य: कर्तु: फलं राजनुपभड़क्ते कदाचन।[1]
राजन्! कर्म का फल दूसरा कभी नहीं भोगता है।
- अवश्यं क्रियमाणस्य कर्मणो दृश्यते फलम्।[2]
किये जा रहे कर्म का फल अवश्य देखा जाता है।
- कर्मणा ह्यनुरुपेन लभ्यते भक्त्वेतनम्।[3]
कर्म के अनुरुप ही वेतन और भत्ता मिलता है।
- करोति यादृशं कर्म तादृशं प्रतिपाद्यते।[4]
ऋजु जैसा कर्म करता है वैसा ही फल मिलता है।
- नाकृत्वा लभते कशिचत् किंचिदत्र प्रियाप्रियम्।[5]
कुछ किये बिना यहाँ कोई कुछ प्रिय या अप्रिय फल नहीं पाता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत 128.14
- ↑ वनपर्व महाभारत 216.26
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 114.23
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 290.22
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 298.30
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