- धर्मागोप्तारं धर्मो रक्षति रक्षित:।[1]
धर्म का पालन करने वाले की धर्म रक्षा करता है।
- न धर्मफलमाप्नोति यो धर्म दोग्धुमिच्छति।[2]
जो धर्म का दोहन करना चाहता है उसे धर्म का फल नहीं मिलता है।
- धर्मो राजन् नुदते पुरुषाणां यत् कुर्वते पापमिह प्रमादात्।[3]
राजन्! मनुष्यों के असावधानी में किये पापों को धर्म नष्ट कर देता है
- यश्च धर्मरत: स गतिं लभते।[4]
जो धर्म के पालन में लगा रहता है वह शुभ गति पाता है।
- उभयमेव तत्रोपयुज्यते फलं धर्मैस्यैवेतरस्य च।[5]
परलोक में पाप और पुण्य दोनों का ही फल भोगना पड़ता है।
- न हि धर्मादपैत्यर्थ: कामो वापि कदाचन।[6]
धर्म से अर्थ या काम कभी दूर नहीं रहते।
- नास्त्यद्भूतं तेषां येषां व्यपाश्रय:।[7]
जो धर्म पर ही निर्भर है उनके लिये कुछ भी आश्चर्य नहीं है।
- धर्म: सनातनश्च त्वां सर्वथा पावयिष्यति।[8]
सनातन धर्म तुम्हें सब प्रकार से पवित्र करेगा।
- सदा धर्मफलं राज्यं सुखानि विविधानि च।[9]
धर्म का पालन ही सदा राज्य और नाना प्रकार के सुख है।
- धर्नोल्लोकास्त्रयस्तात प्रव्रत्ता: सचराचरा:।[10]
तात! चराचर प्राणियों सहित तीनों लोक धर्म से उत्पन्न हुये हैं।
- धर्मनिर्धूतपापानां संसिध्यंते मनोरथा:।[11]
धर्म के पालन से जिनके पाप नष्ट हो गये हैं उनके मनोरथ पूरे होते हैं।
- बहुद्वारस्य धर्मस्य नेहास्ति विफला क्रिया।[12]
धर्म अनेक प्रकार से होता है इसकी क्रिया निष्फल नहीं होती।
- यदा दानरुचि: स्याद् वै तदा धर्मो न सीदति।[13]
जब मनुष्य की दान में रुचि होती है तब उसके धर्म की हानि नहीं होती।
- धर्मादायुर्विवर्धते।[14]
धर्म से आयु बढ़ती है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत 30.8
- ↑ वनपर्व महाभारत 31.6
- ↑ वनपर्व महाभारत 207.53
- ↑ वनपर्व महाभारत 313.113
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 42.23
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 124.37
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 46.2
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 54.34
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 271.27
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 309.6
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 322.18
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 352.2
- ↑ आश्वमेधिकपर्व महाभारत 90.92
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 104.155
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