- नार्हथ क्रतश्रद्धां व्याघातयितुम्।[1]
यज्ञ करने की श्रद्धा में बाधा नहीं डालनी चाहिये।
- कथाप्रतिग्रहो वीर श्रद्धां जनयते शुभम्।[2]
वीर! कथा सुनने से श्रद्धा पैदा होती है।
- सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति।[3]
स्वभाव के अनुसार ही सब की श्रद्धा होती है।
- श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्ध: स एव स:।[4]
यह पुरुष श्रद्धामय है जिसकी जैसी श्रद्धा है वह स्वयं भी वैसा ही है
- आगमांस्त्वनतिक्रम्य श्रद्धातव्यं बुभूषता।[5]
अपना वैभव चाहने वाला शास्त्रों की आज्ञा का श्रद्धा से पालन करे।
- श्रद्धा च नो मा व्यगमत्।[6]
हमारी श्रद्धा दूर न हो।
- अग्रे सर्वेषु यज्ञेषु श्रद्धायज्ञो विधीयते।[7]
सभी यज्ञों से पहले श्रद्धा यज्ञ का ही विधान है।
- दैवतं हि महच्छ्र्द्धा।[8]
श्रद्धा महान् देवता है।
- श्रद्धावता च यष्टव्यमित्येषा वैदिकी श्रुति:।[9]
मन में श्रद्धा रखते हुए यज्ञ करना चाहिये यह वैदिक श्रुति है।
- मिथ्योपेतस्य यज्ञस्य किमु श्रद्धा करिस्यति।[10]
कपट व्यवहार करने वाले के यज्ञ में श्रद्धा क्या कर सकती है?
- वाग्वृद्धं त्रायते श्रद्धा मनोवृद्धं च।[11]
वाणी और मन के दोष से श्रद्धा रक्षा करती है, उसकी पूर्ति करती है।
- मनोवाक्कायिके धर्मे कुरु श्रद्धां समाहित:।[12]
सावधान होकर मन, वाणी और कर्म से होने वाले धर्म में श्रद्धा करो।
- श्रद्धापूतो नरस्तात दुर्दांतोऽपि न संशय:।[13]
तात! श्रद्धा करने से अजितेंद्रिय मनुष्य भी नि:संदेह पवित्र हो जाता है।
- श्रद्धालक्षणमित्येवं धर्म धीरा: प्रचक्षते।[14]
मनीषी लोग श्रद्धा को धर्म का लक्षण कहते हैं।
- श्रद्धापूतानि भुज्जीत।[15]
श्रद्धा से पवित्र अन्न का भोजन करें।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 222.28
- ↑ वनपर्व महाभारत 90.2
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 41.3
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 41.3
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 28.42
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 29.121
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 60.40
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 60.41
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 79.9
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 79.9
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 264.9
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 309.11
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 22..4
- ↑ आश्वमेधिकपर्व महाभारत 35.44
- ↑ आश्वमेधिकपर्व महाभारत 46.38
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