मनुष्य (महाभारत संदर्भ)

  • नामर्त्यो विद्यते मर्त्य:।[1]

मनुष्य अमर नहीं होता है।

  • बहुदु:खपरिक्लेशं मानुष्यमिह दृश्यते।[2]

संसार में मानव योनि में दु:ख और क्लेश अधिक दिखाई देते हैं।

  • एतावानेव पुरुषो यदमर्षी यदक्षमी।[3]

पुरुष वही है जो क्रोध कर सके तथा जो सहन नहीं करता हो।

  • क्षमावान् निरमर्षश्च नैव स्त्री न पुन: पुमान्।[4]

क्षमावान् और क्रोधरहित मनुष्य न स्त्री है न पुरुष है।

  • परं विषहते यस्मात् तस्मात् पुरुष उच्यते।[5]

औरों को सहन (शत्रु का सामना) करता है इसलिये पुरुष कहलाता है।

  • अहो ह्मनित्यं मानुष्यं जलबुद्बुदचंचलम्।[6]

अहो! मनुष्य जीवन जल के बुलबुले के समान चंचल और अनित्य है।

  • न मानुषाच्छ्रेष्ठतरं हि किंचित्।[7]

मनुष्य योनि से अच्छी कोई योनि नहीं है।

  • मानुष्यमसुखं प्राप्य य: सज्जति स मुह्मति।[8]

सुख रहित मानव जीवन पाकर आसक्त होता है वह मोहित हो जाता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वनपर्व महाभारत 135.47
  2. वनपर्व महाभारत 193.26
  3. उद्योगपर्व महाभारत 133.32
  4. उद्योगपर्व महाभारत 133.32
  5. उद्योगपर्व महाभारत 133.35
  6. द्रोणपर्व महाभारत 78.17
  7. शांतिपर्व महाभारत 299.20
  8. शांतिपर्व महाभारत 329.8

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