- एष योगविधि: कृत्स्नो यावदिन्द्रियधारणम्।[1]
इंद्रियों को नियंत्रण में रखना ही योग की सम्पूर्ण विधि है।
- शांतिं योगेन विंदति।[2]
ऋजु योग से शांति पाता है।
- समत्वं योग उच्यते।[3]
समता को योग कहते हैं।
- योग: कर्मसु कौशलम्।[4]
कुशलता से कर्म करना ही योग है।
- योगमातिष्ठोत्तिष्ठ।[5]
खड़े हो योग करो।
- युञ्ज्याद् योगमात्मविशुद्धये।[6]
अपनी शुद्धि के लिये भोग करें।
- योगो भवति दु:खहा।[7]
योग दुख का नाश करता है।
- निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।[8]
प्रसन्न चित्त से (बिना उदासीनता के) निश्चयपूर्वक योग करना चाहिये।
- योगो भूतिकर: पर:।[9]
योग ऐश्वर्य की वृद्धि करने वाला श्रेष्ठ साधन है।
- आत्मा शरीरस्थो योगेनैवात्र दृश्यते।[10]
योग के द्वारा शरीर में स्थित आत्मा का साक्षत्कार किया जाता है।
- योगान्नोद्वेजयेन्मन:।[11]
योग से मन को उद्विग्न (दु:खी) न होने दें।
- नायोगाद् विंदते सुखम्।[12]
योग के बिना सुख नहीं मिलता।
- धारणासु तु योगस्य दु:स्थेयम्।[13]
योग की धारणाओं में स्थिर होना कठिन है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत 211.20
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 36.52
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 26.48
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 26.50
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 28.42
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 30.12
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 30.17
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 30.23
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 130.11
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 210.42
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 240.26
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 286.16
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 300.54
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