नीति (महाभारत संदर्भ)

  • यथा वो नात्र भेद: स्यात् तथा नीतिर्विधीयताम्।[1]

तुम ऐसी नीति अपनाओ जिस से आपस में भेद न हो (फूट न पड़े)

  • समुच्छ्रये यो यतते स राजन् परमो नय:।[2]

राजन्! उन्नति के लिये प्रत्यन्न करना ही सर्वोत्तम नीति है।

  • अधर्म चरसे नूनं यो नावेक्षसि वै नयम्।[3]

तुम निश्चय ही पाप कर रहे हो जो न्याय की ओर नहीं देख रहे हो।

  • न कश्चिन्नापनयते पुमानन्यत्र भार्गवात्।[4]

शुभाचार्य को छोड़कर दूसरा कौन है जो नीति का उल्लंघन नहीं करता।

  • नयैर्धोर्यांति मानवा:।[5]

नीतियों से मनुष्य जीवन निर्वाह करते हैं।

  • न तु नीति: सुनीतस्य शक्यतेऽन्वेषितुं परै:।[6]

उत्तम नीति से सम्पन्न व्यक्ति की नीति को अनीति वाले नहीं जान पाते

  • नीतिर्विधीयतां चापि साम्प्रतं या हिता भवेत्।[7]

उस नीति को अपनाओं जो इस समय हितकारी हो।

  • यथा सेना न भज्येत् तथा नीतिर्विधीयताम्।[8]

सेना में भगदड़ न मचे ऐसी नीति अपनाओ।

  • यथा न विभ्रमेत् सेना तथा नीतिर्विधीयताम्।[9]

जिससे सेना भ्रम में न पड़े ऐसी नीति अपनाओ।

  • सुनीतैरिह सर्वार्था सिध्यंते नात्र संशय:।[10]

सुनीति से प्रयास करने से निश्चय ही सभी कार्य सिद्ध होते हैं।

  • सुनीतैरिह सर्वार्थैर्दैवमप्यनुलोम्यते।[11]

सुनीति से सारे प्रयास करने से भाग्य भी अनुकूल किया जा सकता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आदिपर्व महाभारत 207.18
  2. सभापर्व महाभारत 55.11
  3. सभापर्व महाभारत 65.18
  4. उद्योगपर्व महाभारत 39.30
  5. वनपर्व महाभारत 150.29
  6. विराटपर्व महाभारत 28.9
  7. विराटपर्व महाभारत 29.3
  8. विराटपर्व महाभारत 47.22
  9. विराटपर्व महाभारत 47.23
  10. द्रोणपर्व महाभारत 185.55
  11. कर्णपर्व महाभारत 10.15

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