- यथा वो नात्र भेद: स्यात् तथा नीतिर्विधीयताम्।[1]
तुम ऐसी नीति अपनाओ जिस से आपस में भेद न हो (फूट न पड़े)
- समुच्छ्रये यो यतते स राजन् परमो नय:।[2]
राजन्! उन्नति के लिये प्रत्यन्न करना ही सर्वोत्तम नीति है।
- अधर्म चरसे नूनं यो नावेक्षसि वै नयम्।[3]
तुम निश्चय ही पाप कर रहे हो जो न्याय की ओर नहीं देख रहे हो।
- न कश्चिन्नापनयते पुमानन्यत्र भार्गवात्।[4]
शुभाचार्य को छोड़कर दूसरा कौन है जो नीति का उल्लंघन नहीं करता।
- नयैर्धोर्यांति मानवा:।[5]
नीतियों से मनुष्य जीवन निर्वाह करते हैं।
- न तु नीति: सुनीतस्य शक्यतेऽन्वेषितुं परै:।[6]
उत्तम नीति से सम्पन्न व्यक्ति की नीति को अनीति वाले नहीं जान पाते
- नीतिर्विधीयतां चापि साम्प्रतं या हिता भवेत्।[7]
उस नीति को अपनाओं जो इस समय हितकारी हो।
- यथा सेना न भज्येत् तथा नीतिर्विधीयताम्।[8]
सेना में भगदड़ न मचे ऐसी नीति अपनाओ।
- यथा न विभ्रमेत् सेना तथा नीतिर्विधीयताम्।[9]
जिससे सेना भ्रम में न पड़े ऐसी नीति अपनाओ।
- सुनीतैरिह सर्वार्था सिध्यंते नात्र संशय:।[10]
सुनीति से प्रयास करने से निश्चय ही सभी कार्य सिद्ध होते हैं।
- सुनीतैरिह सर्वार्थैर्दैवमप्यनुलोम्यते।[11]
सुनीति से सारे प्रयास करने से भाग्य भी अनुकूल किया जा सकता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 207.18
- ↑ सभापर्व महाभारत 55.11
- ↑ सभापर्व महाभारत 65.18
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 39.30
- ↑ वनपर्व महाभारत 150.29
- ↑ विराटपर्व महाभारत 28.9
- ↑ विराटपर्व महाभारत 29.3
- ↑ विराटपर्व महाभारत 47.22
- ↑ विराटपर्व महाभारत 47.23
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 185.55
- ↑ कर्णपर्व महाभारत 10.15
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