- असक्तो ह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पूरुष:। [1]
आसक्ति को त्याग कर कर्म करने वाला मनुष्य परमात्मा को पा लेता है।
- भाव्यं सगेंष्वसगिंना। [2]
आसक्ति के पदार्थों में आसक्त नहीं होना चाहिये।
- वीतरागा विमुच्यंते पुरुषा: कर्मबंधैन:।[3]
जिनमें किसी प्रकार की आसक्ति नहीं रही वे कर्मबंधन में नहीं आते।
- ये न सज्जंति कस्मिंश्चित् ते न बद्ध्यन्ति कर्मधि:। [4]
जो किसी में भी आसक्त नहीं होते वे कर्म के बंधन में नहीं आते।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत.27.19
- ↑ शांतिपर्व महाभारत.189.14
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत.144.7
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत.144.8
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