लोभ (महाभारत संदर्भ)

  • लोभो धर्मस्य नाशाय।[1]

लोभ धर्म का नाश करता है।

  • पापानां विद्ध्यधिष्ठानं लोभमेव।[2]

लोभ को पापों का घर समझो।

  • लोभं हित्वा सुखी भवेत्।[3]

ऋजु लोभ को त्याग कर सुखी होता है।

  • लोभात् त्यजति मित्राणी।[4]

लोभ के कारण मित्रों को त्याग देता है।

  • लोभो व्याधिरनंतक:।[5]

लोभ कभी समाप्त न होने वाला रोग है।

  • लोभ: प्रज्ञानमाहंति प्रज्ञा हंति हता ह्रियम्।[6]

लोभ बुद्धि को नष्ट करता है बुद्धि नष्ट होने पर लज्जा नष्ट हो जाती है।

  • न लोभादर्थसम्पत्तिर्नराणामिह दृश्यते।[7]

केवल लोभ करने मात्र से यहाँ धन मिलता दिखाई नहीं देता

  • जीवितं संत्यजंत्येके धनलोभपरा जना:।[8]

धन के लोभ में कुछ लोग अपने प्राण ही त्याग देते हैं।

  • मा लोभात् पातकं कृथा:।[9]

लोभ के वश में होकर पाप मत करो।

  • लोभो महाग्राहो लोभात् पापं प्रवर्तते।[10]

लोभ महान् मगरमच्छ है, लोभ से ही ऋजु पाप करने लगता है।

  • लोभात् काम: प्रवर्तते।[11]

लोभ से काम उत्पन्न होता है।

  • न पूरयितुं शक्यो लोभ: प्राप्या।[12]

पदार्थो की प्राप्ति से लोभ कम नहीं होता।

  • अज्ञानं चातिलोभश्चाप्येकं जानीहि।[13]

अज्ञान और अतिलोभ दोनों को एक ही समझो।

  • अज्ञानाद्धि लोभो हि लोभादज्ञामेव च।[14]

अज्ञान से लाभ होता है और लोभ से अज्ञान होता है।

  • सर्वास्ववस्थासु नरो लोभं विवर्जयेत्।[15]

सभी अवस्थाओं में मनुष्य को लोभ का त्याग कर देना चाहिये।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सभापर्व महाभारत 71.34
  2. वनपर्व महाभारत 207.58
  3. वनपर्व महाभारत 313.78
  4. वनपर्व महाभारत 313.82
  5. वनपर्व महाभारत 313.92
  6. उद्योगपर्व महाभारत 72.18
  7. उद्योगपर्व महाभारत 129.54
  8. शांतिपर्व महाभारत 104.42
  9. शांतिपर्व महाभारत 141.83
  10. शांतिपर्व महाभारत 158.2
  11. शांतिपर्व महाभारत 158.4
  12. शांतिपर्व महाभारत 158.12
  13. शांतिपर्व महाभारत 159.9
  14. शांतिपर्व महाभारत 159.12
  15. अनुशासनपर्व महाभारत 93.143

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