- एकशत्रुवधेनैव शूरो गच्छति विश्रुतिम्।[1]
एक शत्रु के मारने से ही शूरवीर विख्यात हो जाता है।
- शूराणां च नदीनां च दुर्विदा: प्रभवा: किल।[2]
शूरवीरों और नदियों की उत्पत्ति का स्थान जानना कठिन है।
- स्वको हि धर्म: शूराणां विक्रम:।[3]
पराक्रम करना शूरवीरों का अपना धर्म है।
- दीर्णामनुदीर्यन्ते योधा शूरतरा अपि।[4]
सेना को पलायन करता देख शूरवीर भी पलायन कर जाते हैं।
- स हि वीरोत्रत: शूरो यो भग्नेषु निवर्तते।[5]
वही शूरवीर महान् है जो सैनिकों के भाग जाने पर भे रण में रहता है।
- आहवे तु हतं शूरं न शोचेत कथंचन।[6]
युद्ध में मरने वाले शूरवीर के लिये किसी प्रकार का शोक न करें।
- शूरबाहषु लोकोऽयं लम्बते पुत्रवत् सदा।[7]
यह लोक शूरवीर की भुजाओं पर टिका है जैसे पुत्र पिता की भुजाओं में
- सर्वास्ववस्थान शूर: सम्मानमर्हति।[8]
शूरवीर का सभी अवस्थाओं में सम्मान करना चाहिये।
- शूर: सर्वं पालयति।[9]
शूर सबका पालन करता है।
- न भर्तु: शासनं वीरा रणे कुर्वंत्यमर्षिता:।[10]
रणभूमि में सैनिक क्रोधवश सेनापति की आज्ञा का पालन नहीं करते हैं।
- न हि शूरा: पलायंते शत्रून् दृष्ट्वा कदाचन।[11]
शूरवीर शत्रु को देखकर कभी नहीं भागते हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 134.23
- ↑ आदिपर्व महाभारत 136.11
- ↑ आदिपर्व महाभारत 201.18
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 3.76
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 22.3
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 98.44
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 99.17
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 99.17
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 99.18
- ↑ शल्यपर्व महाभारत 18.22
- ↑ शल्यपर्व महाभारत 31.28
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