- यस्याविभक्तं वसु राजन् सहायैस्तस्य दु:खेऽप्यंशभाज: सहाया:।[1]
जो धन को सहायकों को बाँट देता है सहायक उसका दु:ख बाँट लेते हैं।
- सहायाप्तौ प्रथिवीप्राप्तिमाहु:।[2]
सहायको की प्राप्ति प्रथ्वी की ही प्राप्ति मानी जाती है।
- ये नाथवंतोऽद्य भवंति लोके ते नात्मना कर्म समारभन्ते।[3]
जिनके बहुत से सहायक हैं उसके सब कार्य सभी प्रकार से पूर्ण हो जाते हैं।
- सहायवति सर्वार्था: संतिष्ठंतीह सर्वश:।[4]
जिसके पास सहायक है उसके सब कार्य सभी प्रकार से पूर्ण हो जाते हैं।
- सहायसाध्यानि हि दुष्कराणि।[5]
सहायकों द्वारा कठिन कार्य भी सम्पन्न हो जाते हैं।
- सहायाँल्लिप्सेथा: सर्वास्वापत्सु।[6]
आपत्ति के काल के लिये सहायक बनाने की इच्छा करो।
- एक एव चरेद् धर्म सिद्ध्ययर्थमसहायवान्।[7]
बिना किसी सहायक के अकेला ही धर्म का पालन करे।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत 5.20
- ↑ वनपर्व महाभारत 5.20
- ↑ वनपर्व महाभारत 120.2
- ↑ वनपर्व महाभारत 292.5
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 37.24
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 83.4
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 245.4
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