- न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति।[1]
संभोग की इच्छा संभोग करने से कभी शांत नहीं हो सकती है।
- कामं हित्वार्थवान् भवति।[2]
ऋजु काम को त्याग देने से धनवान् ( या सफल ) हो जाता है।
- कृत्स्ने जगति को नेह कामस्य वशगो भवेत्।[3]
सारे संसार में ऐसा कौन है जो काम के वश में न हो जाय।
- दु:खं शेते कामवेगप्रणुन्न:।[4]
काम के वेग से पीड़ित दु:ख से ही सो पाता है।
- उपस्थितस्य कामस्य प्रतिवादो न विद्यते।[5]
यदि भोग्य पदार्थ स्वयं उपस्थित हो तो उसका त्याग नहीं किया जाता।
- कामार्थावनुपायेन लिप्समानो विंश्यति।[6]
बिना उपाय से अर्थ और काम की इच्छा करने वाला नष्ट हो जाता है।
- कामक्रोधौ शरीरस्थौं प्रज्ञानं तौ विलमपत:।[7]
काम और क्रोध शरीर में रहकर मनुष्य का ज्ञान नष्ट करते हैं।
- सगांत् संजायते काम:।[8]
संग से काम उत्पन्न होता है।(विपरीत लिंग के साथ रहने पर)
- चरेत् काममनुध्दत:।[9]
मर्यादा में रहते हुये काम का भोग करें।
- कामोऽर्थफलमुच्यते।[10]
काम को धन का फलकहा जाता है।
- संकल्पाज्जायते काम: सेव्यमानो विवर्धते।[11]
काम सकंल्प से उतपन्न होता है और भोग करने से बढ़ता है।
- कामो हि विविधाकार: सर्वं कामेन संततम्।[12]
काम के अनेक रूप हैं, सबकुछ काम से व्याप्त है।
- नास्ति नासीन्नाभविष्यद् भूतं कामात्मकात् परम्।[13]
कामना से रहित प्राणी न कहीं है न था और न होगा ही।
- श्रेय: पुष्पफलं काष्ठात् कामो धर्मार्थयोर्वर:।[14]
काठ से फूल और फल श्रेष्ठ हैं, तथा धर्म और अर्थ से कर्म श्रेष्ठ है।
- सर्वान् कामान् जुगुप्सेत कामान् कुर्वीत पृष्ठ्त:।[15]
सभी कामनाओं से घृणा करें, उनको पीठ पीछे रखें।
- परित्यजामि काम त्वां हित्वा सर्वमनोगती:।[16]
काम! मन के सभी विचारों के साथ तुझे भी त्याग रहा हूँ।
- कामस्य वशगो नित्यं दु:खमेव प्रपद्यते। [17]
ऋजु काम के वश में होकर सदा दु:ख ही पाता है।
- कामक्रोधोद्भवं दु:खमह्रीररतिरेव च।[18]
काम और क्रोध से दु:ख, निर्लज्जता और असंतोष उत्पन्न होते हैं।
- न खल्वप्यरसज्ञस्य काम: क्वचन जायते।[19]
काम के रस को नहीं जानने वाले के मन में कहीं कामना भी नहीं होती।
- कामबंधनमेवैकं नान्यदस्तीय बंधनम्।[20]
संसार में कामना ही एक बंधन है कोई और बंधन नहीं।
- इच्छा, द्वेषं च कामं च धैर्येण विनिवर्तयेत्। शांतिपर्व महाभारत 274.6
इच्छ, द्वेष और कामवासना का धैर्य से निवारण करें।
- कामं निषेवेत न च गच्छेत् प्रसगिंताम्।[21]
काम का सेवन (उपभोग) तो करें परंतु उसमें आसक्त न हों।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 75.50
- ↑ वनपर्व महाभारत 313.78
- ↑ विराटपर्व महाभारत 14.19
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 27.8
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 39.44
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 124.36
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 129.31
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 26.62
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 70.3
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 123.4
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 163.8
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 167.33
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 167.34
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 167.35
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 174.49
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 177.42
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 177.48
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 177.49
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 180.30
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 251.7
- ↑ अनुशासन पर्व महाभारत 22.27
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