- न ह्यात्मस्तवसंयुक्तं वक्तव्यनिमित्तत:। [1]
अकारण ही अपनी प्रशंसा का वचन नहीं बोलने चाहिये।
- वृथा किं ते कत्थितेन। [2]
व्यर्थ आत्मप्रशंसा से तुम्हें क्या लाभ है?
- कथं परानुभावज्ञ: स्वं प्रशंसितुमर्हति। [3]
जो अन्य के प्रभाव को जानता है वह अपनी प्रशंसा कैसै कर सकता है।
- निकृत्या हि धनं लब्ध्बा को विकस्थितुमर्हति।[4]
छल-कपट से धन पाकर अपनी प्रशंसा कौन पर सकता है?
- को विकत्थेत् विचक्षण:। [5]
ऐसा कौन बुद्धिमान् है जो स्वयं ही अपनी प्रशंसा करेगा?
- सर्वथानार्यकमैंतत् प्रशंसा स्वयमात्मन:। [6]
स्वयं अपनी प्रशंसा करना सर्वथा नीच लोगों का कार्य है।
- कत्थने को हि दुर्गत:। [7]
अपनी प्रशंसा करने में कौन दरिद्र होगा?
- कामं नैतत् प्रशंसंति संत: स्वबलसंस्तवम्। [8]
अपने बल की आप प्रशंसा करने को सन्त लोग अच्छा नहीं मानते।
- मा भूरात्मप्रशंसक:। [9]
अपना प्रशंसक मत बन।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 34.3
- ↑ आदिपर्व महाभारत 152.34
- ↑ सभापर्व महाभारत 15.3
- ↑ सभापर्व महाभारत 77.20
- ↑ विराटपर्व महाभारत 50.9
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 76.6
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 160.107
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 168.34
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 141.82
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