मुक्त (महाभारत संदर्भ)

  • कामबंधनमुक्तो हि ब्रह्मभूयाय कल्पते।[1]

काम के बंधन से मुक्त होकर ऋजु मुक्त हो जाता है।

  • न प्रमाद्यति सम्मोहात् सततं मुक्त एव स:।[2]

जो कभी प्रमाद (असावधानी) नहीं करता वह मुक्त ही है।

  • यस्यत्त्वतो विजानाति लोकेऽस्मिन् मुक्त एवं स:।[3]

इस संसार को जो अच्छी प्रकार से जानता है वह मुक्त ही है।

  • यश्चाल्पेन संतुष्टो लोकेऽस्मिन् मुक्त एवं स:।[4]

जो इस संसार में थोड़े में संतुष्ट है वह मुक्त ही है।

  • सर्वभूतासुह्रन्मित्रो ब्रह्मभूयास कल्पते।[5]

सभी प्राणियों का मित्र और हितैषी ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है।

  • उभे सत्यानृते हित्वा मुच्यते नात्र संशय:।[6]

सत्य और असत्य दोनों को त्याग देने वाला नि:संदेह मुक्त हो जाता है।

  • निर्ममो निरहंकारो मुच्यते नात्र संशय:।[7]

ममता और अहंकार से रहित मनुष्य नि:संदेह मुक्त हो जाता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शांतिपर्व महाभारत 251.7
  2. शांतिपर्व महाभारत 288.26
  3. शांतिपर्व महाभारत 288.29
  4. शांतिपर्व महाभारत 288.32
  5. आश्वमेधिकपर्व महाभारत 42.47
  6. आश्वमेधिकपर्व महाभारत 47.11
  7. आश्वमेधिकपर्व महाभारत 47.15

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