- न तु सांत्वे पराजय:।[1]
शांति में पराजय नहीं है।
- श्रेयसा निर्जितं वरम्।[2]
श्रेष्ठ पुरुष से हारना भी अच्छा है।
- पाप आत्मपराजय:।[3]
अपने आप को हार जाना पाप है।
- नाधर्मेण जित: कश्चिद् व्यथते वै पराजये।[4]
जिसे अधर्म से जीत लिया गया हो वह पराजय में दु:खी नहीं होता।
- अनित्या किल मर्त्यानामर्थसिद्धिर्जयाजयौ।[5]
मनुष्यों में जय-पराजय और हानि-लाभ सदा नहीं होते हैं।
- पराजयो वा मृत्युर्वा श्रेयान् मृत्युर्न निर्जय:।[6]
पराजय और मृत्यु में मृत्यु अच्छी है पराजय नहीं।
- श्रेय: स्यान्न मौढ्येन राजन् गंतु: पराभवम्।[7]
राजन्! मूर्खता से पराजय स्वीकार करने वाले का कल्याण नहीं होता
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 220.12
- ↑ सभापर्व महाभारत 23.7
- ↑ सभापर्व महाभारत 65.30
- ↑ सभापर्व महाभारत 78.8
- ↑ विराटपर्व महाभारत 20.3
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 200.29
- ↑ शल्यपर्व महाभारत 4.46
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