राग (महाभारत संदर्भ)

  • रागाभिभूत: पुरुष: कामेन परिकृष्यते।[1]

आसक्ति वाले मानुष्य को काम अपनी और खींच लेता है।

  • नास्ति रागसमं दु:खम्। [2]

आसक्ति के समान कोई दु:ख नहीं है।

  • विशेषा हि प्रसंगिंन:।[3]

विशेष वस्तु में आसक्ति हो जाती है।

  • दोषदर्शी भवेत् तत्र यत्र राग: प्रवर्तते। [4]

जिस पदार्थ में मन आसक्त होने लगे उसमें दोष ढूँढना चाहिये।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वनपर्व महाभारत.2.34
  2. शांतिपर्व महाभारत.174.35
  3. शांतिपर्व महाभारत.325.9
  4. शांतिपर्व महाभारत.330.6

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