- इष्टं हि विदुषां लोके समासव्यासधारणम्।[1]
संसार में संक्षेप और विस्तार दोनों शैलियों को विद्वान् अच्छा मानते है।
- परेण समवेतस्तु य प्रशस्य: स पूज्यते।[2]
औरों से सामना होने पर भी जो श्रेष्ठ है उसका आदर होता है।
- बाल्यमभ्येति विद्वान्।[3]
विद्वान् का स्वभाव बालक जैसा हो जाता है।
- विद्वांस: कर्मभि: पुण्यै: स्वर्गमीहंति नित्यश:।[4]
विद्वान सदा पुण्य कर्मों से स्वर्ग पाना चाहते हैं।
- ज्ञातिवत् सर्वभूतानां सर्ववित्।[5]
सबकुछ जानने वाला सभी प्राणियों को परिवार के समान समझता है।
- विद्वान सर्वेषु भूतेषु आत्मना सोपमो भवेत्।[6]
विद्वान सभी प्राणियों को अपने जैसा ही समझे।
- अपि चापिहित: श्वभ्रे कृतविद्य: प्रकाशते।[7]
विद्वान यदि बिल में भी रहे तो भी प्रख्याति पा जाता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 1.51
- ↑ सभापर्व महाभारत 15.3
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 44.23
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 71.14
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 251.3
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 276.10
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 287.31
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