- दैवतानि प्रसादं हि भक्त्या कुर्वंति।[1]
भक्ति से प्रसन्न होकर देवता कृपा करते हैं।
- भक्त्या च श्रेय: परमवाप्स्यसि।[2]
भक्ति से तुम्हारा परम कल्याण होगा।
- शुद्धां गतिं परमां परैति शुद्धेन नित्यं मनसा विचिंवन्।[3]
सदा शुद्ध मन से ईश्वर का चिन्तन करने वाला उसको पा लेता है।
- नह्मलब्धप्रसादस्य भक्तिर्भवति शंकरे।[4]
कृपा के बिना शंकर की भक्ति प्राप्त नहीं होती।
- विगतपापस्य भवे भक्ति प्रजायते।[5]
पाप नष्ट हो जाने पर भगवान् शंकर मे भक्ति होती है।
- न्याय्यं श्रेयोऽभिकामेन प्रतिपत्तुं जनाद्रन:।[6]
जो अपना कल्याण चाहे उसे जनाद्रन (विष्णु) की शरण लेनी चाहिये।
- भक्त्या पुण्डरीकांक्ष स्तैरर्चेन्नर: सदा।[7]
मनुष्य सदा भक्तिपूर्वक स्तुतियों से भगवान् की पूजा करे।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत 150.24
- ↑ वनपर्व महाभारत 231.57
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 280.55
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 14.185
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 17.164
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 148.47
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 149.8
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