- दक्षिणाभिरूपेतं हि कर्म सिद्ध्यति।[1]
दक्षिणायुक्त कर्म ही सफल होता है।
- दक्षिणा शांतिरुच्यते।[2]
दक्षिणा को शांति कहा जाता है। (दक्षिणा मिलने से शांति मिलती है)
- दक्षिणा सर्वयज्ञानां दातव्या भूतिमिच्छता।[3]
ऐश्वर्य के इच्छुक को सभी यज्ञों में दक्षिणा अवश्य देनी चाहिये।
- यज्ञाड्ग़ं दक्षिणा तात वेदानां परिबृंहणम्।[4]
तात! दक्षिणा यज्ञ का अंग है, वेदों का पूरक है।
- दक्षिणा परितोषो वै गुरुणां सद्भिरुच्यते।[5]
सज्जन कहते हैं कि गुरुजनों को संतुष्ट करना ही (गुरु) दक्षिणा है
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 106.23
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 106.23
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 65.21
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 79.11
- ↑ आश्वमेधिकपर्व महाभारत 56.21
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज