- यतध्वं परं शक्त्या विजयाय।[1]
सारी शक्ति लगाकर विजय के लिये यत्न करो।
- विजयो मंत्रमूलो हि राज्ञां भवति।[2]
राजाओं की विजय का मूल कारण मंत्र (गुपज्ञान) होता है।
- जतंति लोकान् जना: कर्मणा निर्मलेन।[3]
पुण्य कर्म से लोग संसार को जीत लेते हैं।
- यस्य स्याद् विजय: कृष्ण तस्याप्यपचयो ध्रुवम्।[4]
कृष्ण! जिसकी विजय होती है उसकी भी भारी हानि तो है ही।
- जयो वैरं प्रसृजति दु:खमास्ते पराजित:।[5]
विजय से वैर उत्पन्न होता है पराजित दु:ख से समय व्यतीत करता है।
- युद्धतोर्हि द्वयोर्युद्धे नैकांतेन भवेज्जय:।[6]]
दो के युद्ध में किसकी विजय होगी यह निश्चित नहीं कहा जा सकता।
- कृत्वासौम्यमिवात्मानं जयायोतिष्ठ।[7]
अपने आप को कठोर सा बनाकर विजय के लिये खड़े हो।
- बहुना किं प्रलापेन यतो धर्मस्ततो जय:।[8]
अधिक बोलने से क्या लाभ है जिधर धर्म है उसी पक्ष की जीत होगी
- हर्षो योधगणास्यैको जयलक्षणमुच्यते।[9]
योद्धाओं की प्रसन्नता होना एकमात्र विजय का लक्षण है।
- उपायविजयं श्रेष्ठम्।[10]
युक्ति से (उपाय से, बिना युद्ध के) जो विजय मिलती है वह श्रेष्ठ है।
- जयवंतो हि संग्रामे कृतकृत्या भवंति।[11]
संग्राम में जीतने वाले कृतार्थ हो जाते हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 102.17
- ↑ सभापर्व महाभारत 5.27
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 44.24
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 72.54
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 72.59
- ↑ [[उद्योगपर्व महाभारत |उद्योगपर्व महाभारत 64.27]
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 136.8
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 148.16
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 3.75
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 3.81
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 3.85
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