सत्य (महाभारत संदर्भ)

  • सत्ये कश्चिदवस्थित:।[1]

सत्य में कोई-कोई ही स्थित है (कुछ लोग ही सत्य बोलते हैं।)

  • सत्यात् प्रच्यवमानानां व्याधयो बहव:।[2]

सत्य से भ्रष्ट लोगों को अनेक रोग हो जाते हैं।

  • सत्यं संक्षिप्यते लोके नरै: पण्डितमानिभि:।[3]

अपने आप को पण्डित मानने वाले लोग सत्य को दबाकर रखते है।

  • सत्यार्जवे धर्मसाहु: परं धर्मविदो जना:।[4]

धर्मज्ञानी लोग सत्य और सरलता को परम धर्म कहते हैं।

  • दुर्ज्ञेयो शाश्वतो धर्म: स च सत्ये प्रतिष्ठित:।[5]

सनातन धर्म को जानना अतिकठिन है और वह सत्य में प्रतिष्ठित है।

  • अहिंसा परमो धर्म: स च सत्ये प्रतिष्ठित:।[6]

अहिंसा परम धर्म है परंतु वह सत्य पर प्रतिष्ठित (आश्रित) है।

  • सत्ये कृत्वा प्रतिष्ठां तु प्रवर्तंते प्रवृतय:।[7]

सत्य के आधार पर ही सभी कर्म आरम्भ होते हैं।

  • न हेतुवादाद् धर्मात्मा सत्यं जह्यात् कदाचन।[8]

धर्मात्मा व्यक्ति तर्क का आश्रय लेकर कभी सत्य को न त्यागे।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वनपर्व महाभारत 149.30
  2. वनपर्व महाभारत 149.31
  3. वनपर्व महाभारत 190.39
  4. वनपर्व महाभारत 206.40
  5. वनपर्व महाभारत 206.41
  6. वनपर्व महाभारत 207.74
  7. वनपर्व महाभारत 207.74
  8. उद्योगपर्व महाभारत 50.17

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