जीवन (महाभारत संदर्भ)

  • शक्यते दुस्त्यजेऽप्यर्थे चिररात्राय जीवितुम्।[1]

जिसे त्यागना कठिन है से उसके बिना भी बहुत समय तक जी सकते हैं।

  • न मृतो जयते शत्रूञ्जीवन् भद्राणि पश्यति।[2]

मरा हुआ शत्रुओं को नहीं जीतता जीवित ही सुख के दिन देखता है।

  • जीवतां कुरुते कार्य पिता माता सुतास्तथा।[3]

माता-पिता और पुत्र सभी उसी के काम आते हैंं जो जीवित है।

  • यावज्जीवेन तत् कुर्याद् येन प्रेत्य सुखं वसेत्।[4]

जीवन भर वह कर्म करें जिससे मर कर सुख से रह सकें।

  • न कथञ्जिन्न जीव्यते।[5]

ऐसी कोई परिस्थति नहीं जिसमें जिया ही न जा सके।

  • आपद्विनाशभूयिष्ठं गतै: कार्यं हि जीवितम्।[6]

संकट में विनाश के निकट होने पर भी प्राणरक्षा का यत्न करना चाहिये।

  • सर्वास्ववस्थासु रक्षेज्जीवितमात्मन:।[7]

सभी अवस्थाओं में अपने जीवन की रक्षा करें।

  • यथा यथैव जीवेद्धि तत् कर्तव्यमहेलया।[8]

जिससे जीवन सुरक्षित रहे वह कर्म बिना संकोच के करना चाहिये।

  • जीवितं मरणाच्छ्रेयो जीवन् धर्ममवाप्नुयात्।[9]

मरने से जीना अच्छा है, जीवित मनुष्य धर्म का आचरण कर सकता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वनपर्व महाभारत 131.8
  2. वनपर्व महाभारत 252.39
  3. वनपर्व महाभारत 301.4
  4. उद्योगपर्व महाभारत 35.68
  5. उद्योगपर्व महाभारत 39.83
  6. शांतिपर्व महाभारत 138.36
  7. शांतिपर्व महाभारत 138.195
  8. शांतिपर्व महाभारत 141.65
  9. शांतिपर्व महाभारत 141.65

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