- ह्रीरकार्यनिवर्तनम्।[1]
न करने योग्य कार्य से दूर रहने को लज्जा[2] कहते हैं।
- ह्रीर्हता बाधते धर्मम्।[3]
नष्ट हुई लज्जा धर्म को नष्ट करती है।
- अह्रीको वा विमूढो वा नैव स्त्री न पुन: पुमान्।[4]
जो निर्लज्ज और मूढ़ है वह न स्त्री ही है और न पुरुष ही है।
- नास्ति ह्रीरशनार्थिन:।[5]
भूखे को कुछ भी करने में लज्जा नहीं आती।
- ह्रीस्तु धर्मादवाप्यते।[6]
धर्म का पालन करने से मनुष्य लज्जाशील बनता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत 313.88
- ↑ [[पाप करने से पहले मन में जो संकोच होता है उसे ह्री कहते हैं तथा पाप करने के बाद जो संकोच होता है उसे लज्जा कहते हैं।]]
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 72.19
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 72.38
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 141
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 162.15
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