- श्रद्दधानस्य पूयंते सर्वपापान्यशेषत:।[1]
श्रद्धालु के सभी पाप पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं।
- चिकीर्षेदेव कल्याणं श्रद्दधानोऽनसूयक:।[2]
श्रद्धालु मनुष्य दूसरों में दोष न ढूँढे, अपने कल्याण का ही इच्छा करे।
- श्रद्दधाना: शांताश्च दुर्गाण्यतितरंति।[3]
श्रद्धालु और शांत मनुष्य संकट को पार कर जाते हैं।
- पुण्यानि यानि कुर्वीत श्रद्दधानो जितेद्रिय:।[4]
ऋजु जो भी पुण्यकर्म करे उसे श्रद्धापूर्वक और जितेद्रिय होकर करे।
- श्रद्दधान शुभां विद्यां हीनादपि समाप्नुयात्।[5]
नीच के पास भी यदि शुभ विद्या हो तो उसे उससे श्रद्धापूर्वक ले लें।
- श्रद्धावाञ्श्रद्दधानश्च धर्मश्चैव हि।[6]
श्रद्धा करने वाला श्रद्धालु साक्षात् धर्म ही है।
- न श्रद्धिनं जरामृत्यु विशेताम्।[7]
श्रद्धालु को जरा(बुढापा) और मृत्यु नहीं आते।
- श्रद्दाधानोऽनसूयश्च शतं वर्षाणि जीवति।[8]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 1.254
- ↑ वनपर्व महाभारत 207.55
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 110.16
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 165.24
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 165.31
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 264.19
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 318.88
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 104.13
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