- न तु मात्राभिशप्तानां मोक्ष: क्वचन विद्यते।[1]
माता के शाप से कहीं मुक्ति नहीं मिलती।
- दुष्करं कुरुते माता विवर्धयति या प्रजा:।[2]
माँ कठिन कर्म करती है, जो कि शिशु को पाल-पोस कर बड़ा बनाती है।
- माता गुरुतरा भूमे:।[3]
माता का गौरव पृथ्वी से भी अधिक है।
- मातरं पितरं चैव मा मज्जी: शोकसागरे।[4]
माता और पिता को शोक के सागर में मत डुबाओ।
- नास्ति मातृसमो गुरु:।[5]
माता के समान कोई गुरु नहीं है।
- नातिमातरमाश्रय:।[6]
माता से उत्तम कोई आश्रय नहीं है।
- स्वधर्मो मातृरक्षणम्।[7]
माता की रक्षा करना अपना सहज धर्म है।
- मातृलाभे सनाथत्वमनाथत्वं विपर्यये।[8]
माता है तो मनुष्य सनाथ है नहीं तो अनाथ।
- नास्ति मातृसमं त्राणं नास्ति मातृसमा प्रिया।[9]
माता के समान कोई रक्षक नहीं है, माता के समान कोई प्रिया नहीं है।
- माता जानाति यद्गोत्रं माता जानाति यस्य स:।[10]
माता जानती है कि उसके पुत्र का गोत्र क्या है और पिता कौन है।
- मातरमाश्रित्य सर्वे जीवंति जंतव:।[11]
माता के आश्रय में सभी जीव जीवन धारण करते हैं।
- मातुर्वाक्यमनतिक्रमणीयम्।[12]
माता के वचन को टालना नहीं चाहिये।
- प्रीणाति मातरं येन पृथिवी तेन पूजिता।[13]
माता को प्रसन्न रखने से पृथिवी की पूजा हो जाती है।
- मातापितरमुत्थाय पूर्वमेवाभिवादयेत्।[14]
प्रात:काल उठकर पहले माता-पिता का अभिवादन करें।
- माता गरीयसी यच्च तेनैतां मन्यते जन:।[15]
माता का गौरव सबसे अधिक है इसीलिये तो लोग माता को मानते हैं।
- ज्येष्ठा मातृसमा चापि भगिनी।[16]
बड़ी बहन भी माता के समान होती है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 37.4
- ↑ वनपर्व महाभारत 207.17
- ↑ वनपर्व महाभारत 313.60
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 125.8
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 108.18
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 161.9
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 266.11
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 266.26
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 266.31
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 266.35
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 269.6
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 342.30
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 7.25
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 104.43
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 105.16
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 105.19
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