असंयमी (महाभारत संदर्भ)

  • .अकृतात्मा लोभेन सहजेन विनश्यति। [1]

असंयमी अपने सहज लोभ के साथ ही नष्ट हो जाता है।

  • नाकृतात्मा वेदयति धर्माधर्मविनिश्चियम्। [2]

जिसका मन पवित्र है वही धर्म और अधर्म के सार को जान सकता है।

  • क्रव्याद्भ्य इव भूतानामदांतेभ्य: सदाभयम्। [3]

असंयमी से सभी को उतना ही भय लगा रहता है जितना हिंसक पशुओं से।

  • अनीशश्चावमानी च स शीर्धं भ्रश्यते श्रिय:। [4]

दूसरों का अपमान करने वाला अजितेंद्रिय शीघ्र ही श्रीहीन हो जाता है।

  • अदांत: पुरुष: क्लेशमभीक्ष्णं प्रतिपद्यते। [5]

जिसका मन वश में नहीं है वह निरन्तर क्लेश उठाता है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वनपर्व महाभारत.2.38
  2. वनपर्व महाभारत.215.18
  3. उद्योगपर्व महाभारत.63.12
  4. सौप्तिकपर्व महाभारत.2.25
  5. शांतिपर्व महाभारत.160.13

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