मति (महाभारत संदर्भ)

  • मतिसाम्यं द्वयोर्नास्ति।[1]

दो मनुष्यों की बुद्धि समान नहीं होती है।

  • अनित्यमतयो लोके नरा:।[2]

संसार के मनुष्य स्थिर विचार वाले नहीं होते।

  • न तस्य हि मतिं छिंद्याद् यस्य नेच्छेत् पराभवम्।[3]

ऋजु जिसकी पराजय नहीं चाहता उसकी मति को भ्रष्ट न करे।

  • अंवेति मति: स्वभावम्।[4]

मति स्वभाव के अनुसार चलती है। (स्वभाव का अर्थ है प्रवृत्ति, आदत)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सभापर्व महाभारत 56.8
  2. उद्योगपर्व महाभारत 80.6
  3. उद्योगपर्व महाभारत 124.41
  4. शांतिपर्व महाभारत 202.21

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