- पुष्पवस्तु ध्रुवा श्री:।[1]
पुष्प धारण करने वालों के पास लक्ष्मी स्थिर रहती है।
- प्रघ्वंसिनी क्रूरसमाहिता श्री:।[2]
क्रूरता से प्राप्त की गई लक्ष्मी का शीघ्र ही नाश हो जाता है।
- श्रीर्मृदुप्रौढा गच्छति पुत्रपौत्रान्।[3]
कोमल व्यवहार से प्राप्त की गई लक्ष्मी पुत्र पौत्रों तक चली जाती है।
- श्रीर्मंगलात् प्रभवति प्रागल्भ्यात् सम्प्रवर्धते।[4]
लक्ष्मी शुभकर्मों से उत्पन्न होता है परिपक्वता से बढ़ती है।
- उन्मत्ता गौरिबान्धा श्री: क्वचिदेवावतिष्ठते।[5]
पागल गाय की भाँति अन्धी लक्ष्मी कहीं-कहीं ही ठहरती है।
- श्री: सुखस्येह संवास:।[6]
संसार में श्री सुख का भण्डार है।
- श्रीर्हता पुरुषं हंति।[7]
नष्ट हुई श्री मनुष्य को मार देती है।
- मा तात श्रियमायान्तीमवमंस्था: समुद्यतम्।[8]
तात! अपने आप आने को उद्यत लक्ष्मी का अपमान मत करो।
- अध्रुवा सर्वमर्त्येषु श्रीरुपालक्ष्यते भुशम्।[9]
किसी भी मनुष्य के पास सम्पत्ति सदा स्थिर नहीं देखी जाती।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सभापर्व महाभारत 21.51
- ↑ सभापर्व महाभारत 75.10
- ↑ सभापर्व महाभारत 75.10
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 35.51
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 39.64
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 42.45
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 72.19
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 124.61
- ↑ शल्यपर्व महाभारत 65.20
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