श्री (महाभारत संदर्भ)

  • पुष्पवस्तु ध्रुवा श्री:।[1]

पुष्प धारण करने वालों के पास लक्ष्मी स्थिर रहती है।

  • प्रघ्वंसिनी क्रूरसमाहिता श्री:।[2]

क्रूरता से प्राप्त की गई लक्ष्मी का शीघ्र ही नाश हो जाता है।

  • श्रीर्मृदुप्रौढा गच्छति पुत्रपौत्रान्।[3]

कोमल व्यवहार से प्राप्त की गई लक्ष्मी पुत्र पौत्रों तक चली जाती है।

  • श्रीर्मंगलात् प्रभवति प्रागल्भ्यात् सम्प्रवर्धते।[4]

लक्ष्मी शुभकर्मों से उत्पन्न होता है परिपक्वता से बढ़ती है।

  • उन्मत्ता गौरिबान्धा श्री: क्वचिदेवावतिष्ठते।[5]

पागल गाय की भाँति अन्धी लक्ष्मी कहीं-कहीं ही ठहरती है।

  • श्री: सुखस्येह संवास:।[6]

संसार में श्री सुख का भण्डार है।

  • श्रीर्हता पुरुषं हंति।[7]

नष्ट हुई श्री मनुष्य को मार देती है।

  • मा तात श्रियमायान्तीमवमंस्था: समुद्यतम्।[8]

तात! अपने आप आने को उद्यत लक्ष्मी का अपमान मत करो।

  • अध्रुवा सर्वमर्त्येषु श्रीरुपालक्ष्यते भुशम्।[9]

किसी भी मनुष्य के पास सम्पत्ति सदा स्थिर नहीं देखी जाती।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सभापर्व महाभारत 21.51
  2. सभापर्व महाभारत 75.10
  3. सभापर्व महाभारत 75.10
  4. उद्योगपर्व महाभारत 35.51
  5. उद्योगपर्व महाभारत 39.64
  6. उद्योगपर्व महाभारत 42.45
  7. उद्योगपर्व महाभारत 72.19
  8. उद्योगपर्व महाभारत 124.61
  9. शल्यपर्व महाभारत 65.20

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः