पुण्य (महाभारत संदर्भ)

  • पुण्यं कस्य न प्रीतिमावहेत्।[1]

पुण्य से किस को प्रसन्नता नहीं होगी।

  • पुण्यं प्राणान् धारयति पुण्यं प्राणदमुच्यते।[2]

पुण्य प्राणों को धारण करता है, अत: पुण्य को प्राणदाता कहा गया है।

  • पापहरं पुण्यं जन्ममृत्युजरापहम्।[3]

पुण्य पाप को तथा जन्म, मृत्यु तथा बुढापे को दूर करता है।

  • पुण्यं प्रज्ञां वर्धयति क्रियमाणं पुन:-पुन:।[4]

पुन:-पुन: पुण्य करने से बुद्धि बढती है।

  • जयंति लोकान् जना: कर्मणा निर्मलेन।[5]

पुण्य कर्म से लोग संसार को जीत लेते है।

  • क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशंति।[6]

पुण्य के समाप्त होने पर प्राणी मृत्युलोक में प्रवेश करते हैं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आदिपर्व महाभारत 95.3
  2. आदिपर्व महाभारत 154.15
  3. उद्योगपर्व महाभारत 43.40
  4. उद्योगपर्व महाभारत 35.62
  5. उद्योगपर्व महाभारत 44.24
  6. भीष्मपर्व महाभारत 33.21

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