- त्यागाच्छान्तिनन्तरम्।[1]
त्याग से तत्काल शांति मिलती है।
- त्यागवांश्च पुन: पापं नालंकर्तुमिति श्रुति:।[2]
श्रुति कहती है कि त्यागी पाप नहीं कर सकता।
- त्यागवाज्जन्म मरणे नाप्नोतीति श्रुति:।[3]
त्यागी का जन्म मरण नहीं होता, यह वेद का कथन है।
- दुष्करं बत कुर्वन्ति महतोऽर्थांस्त्यजन्ति ये।[4]
अति कठिन कर्म करते हैं जो कि लोग विशाल सम्पत्ति को त्याग देते हैं।
- रागद्वेषप्रहीणस्य त्यागो भवति नान्यथा।[5]
राग और द्वेश से हीन मनुष्य का त्याग ही त्याग है और प्रकार से नहीं।
- नास्ति त्यागसमं सुखम्।[6]
त्याग के समान कोई सुख नहीं है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 36.12
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 7.38
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 7.38
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 104.9
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 162.17
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 175.35
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