- असूयैकपदं मृत्यु:।[1]
गुणों में भी दोष देखना (मानना) सर्वथा मृत्यु के समान है।
- परवाच्येषु निपुण: सर्वो भवति सर्वदा।[2]
दूसरे के दोष बताने में सभी लोग सदा ही निपुण होते हैं।
- आत्मवाच्यं न जानीते जानत्रपि च मुह्मति।[3]
ऋजु अपने दोष नहीं जानता और जानता हुआ भी मोहित हो जाता है।
- न वाच्य: परिवादो वै न श्रोतव्य: कथञ्चन।[4]
न किसी की निंदा करें न सुनें।
- आत्मोत्कर्षं न मार्गेत परेषां परिनिंदया।[5]
दूसरों की निंदा करके अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने का प्रयास न करें।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 40.4
- ↑ कर्णपर्व महाभारत 45.44
- ↑ कर्णपर्व महाभारत 45.44
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 132.12
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 287.25
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज