- स्चवृत्तौ का परीक्षणा।[1]
अपनी वृत्ति के विषय में परीक्षा क्या करनी है?
- सर्वे हि स्वं समुत्थानमुपजीवंति जंतव:।[2]
सभी प्राणी अपने उद्योग का आश्रय लकेर ही जीविका चलाते हैं।
- अकर्मणा वै भूतानां वृत्ति: स्थान्न हि काचन।[3]
बिना कर्म के प्राणीयों की कोई जीविका नहीं चल सकती।
- अंसक्लेशेन लोकस्य वृत्तिं लिप्सेत।[4]
लोगों को कष्ट दिये बिना जीवन निर्वाह हो सके, ऐसी कामना करें।
- वृत्तिरन्या विगर्हिता।[5]
अन्य वृत्ति अपनाना निंदा की बात है।
- महागुणो वधो राजन् न तु निंदा कुजीविका।[6]
राजन्! निंदा की घृणित जीविका से मर जाना अधिक गुणकारी है।
- प्राणयात्रापि लोकस्य बिना ह्मर्थंं न सिध्यति।[7]
धन के बिना लोगों की जीविका भी नहीं हो सकती।
- वृत्तिर्धर्माद् गरीयसी।[8]
जीविका का साधन धर्म से भी बड़ा है।
- धर्म प्राप्य न्यायवृत्तिमबलीयान् न विन्दति।[9]
दुर्बल मनुष्य धर्म के आश्रम में समुचित वृत्ति नहीं पा सकता।
- विज्ञानबलमास्थाय जीवितव्यम्।[10]
विज्ञान के बल का आश्रय लेकर जीविका चलानी चाहिये।
- येषां बलकृता वृत्तिस्तेषामन्या न रोचते।[11]
जो बल से जीविका चलाते हैं उनको अन्य वृत्ति अच्छी नहीं लगती।
- न शड़्खलिखतां वृत्तिं शक्यमास्थाय जीवितुम्।[12]
भाग्य में लिखी वृत्ति के आश्रय से जीवन निर्वाह नहीं हो सकता।
- कुदेशे नास्ति जीविका।[13]
दुष्ट देश में जीविका नहीं मिलती।
- ज्ञानादपेत्य या वृत्ति: सा विनाशयति प्रजा:।[14]
जो जीविका का साधन ज्ञान से रहित है वह प्रजा का नाश करता है।
- आत्मन: परेषां च वृत्तिंं संरक्ष।[15]
अपनी और दूसरों की जीविका की रक्षा करो।
- पूर्वं वृत्तिस्तत: प्रजा:।[16]
पहले आजीविका का साधन चुनें पश्चात् संतान उत्पन्न करें।
- य इच्छेन्मोक्षमास्थातुमुत्तमां वृत्तिमाश्रयेत्।[17]
जो मोक्ष पाना चाहता हो उसे उत्तम वृत्ति का आश्रय लेना चाहिये।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सभापर्व महाभारत 55.7
- ↑ वनपर्व महाभारत 32.7
- ↑ वनपर्व महाभारत 32.8
- ↑ वनपर्व महाभारत 209.44
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 72.46
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 73.24
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 8.17
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 130.14
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 130.15
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 132.3
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 132.7
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 130.29
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 139.94
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 269.50
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 61.17
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 77.14
- ↑ आश्वमेधिकपर्व महाभारत 46.17
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