- तितिक्षुरतितिक्षोर्विशिष्ट:।[1]
असहिष्णु से सहिष्णु श्रेष्ठ है।
- मा तितिक्षून् क्षिणु त्वम्।[2]
तुम सहिष्णुओं की हिंसा मत करो।
- क्षमावतो जयो नित्यम्।[3]
सहिष्णु की सदा जय होती है।
- क्षमावतां ब्रह्मलोक लोका: परमपूजिता:।[4]
सहिष्णु लोगों को ब्रह्मलोक में उत्तम स्थान मिलता है।
- क्षमावतामयं लोक: परश्चैव क्षमावताम्।[5]
इहलोक और परलोक दोनों लोक सहिष्णुओं के लिये ही हैं।
- अर्मषजो हि संताप: पावकाद् दीप्तिमत्तर:।[6]
असहिष्णुता की जलन आग की जलन से भी अधिक होती है।
- अमर्षवशमापन्नो न किंचिद् बुध्यते नर:।[7]
असहिष्णु मनुष्य को कुछ ज्ञान नहीं रहता।
- यथाशक्ति मनुष्याणां शममालक्षयामहे।[8]
मनुष्यों में अपनी शक्ति के अनुसार सहिष्णुता की एक सीमा होती है।
- बालैरासेवितं ह्येतद् यदमर्षो यदक्षमा।[9]
असहिष्णुता तथा क्षमा को त्याग देना बालकों (मूर्खों) का काम है।
- क्षमया युक्तमशक्तं मन्यते जन:।[10]
सहिष्णु को लोग असमर्थ मानते हैं।
- सर्वथा क्षमिणा भाव्यम्।[11]
सब प्रकार से सहिष्णु बने रहना चाहिये।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 87.6
- ↑ सभापर्व महाभारत 64.7
- ↑ वनपर्व महाभारत 29.14
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 29.39
- ↑ वनपर्व महाभारत 29.43
- ↑ वनपर्व महाभारत 35.11
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 124.42
- ↑ विराटपर्व महाभारत 50.14
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 103.7
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 160.34
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 162.20
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