- प्रियाप्रिये चात्मसमं नयीत।[1]
जैसे स्वयं का प्रिय और अप्रिय होता है वैसा ही औरों का भी जानें।
- प्रियो भवति दानेन प्रियवादेन चापर:।[2]
कोई दान देने से प्रिय होता है, कोई प्रियवचन बोलने से प्रिय होता है।
- इच्छंति बहुलं संत: प्रतिकर्तुं महत् प्रियतम्।[3]
सज्जन उपकार के बदले में अनेक बार बड़ा प्रिय करना चाहते हैं।
- यस्य स्वल्पं प्रियं लोके ध्रुवं तस्याल्पमप्रियम्।[4]
जिसका प्रिय कम है उसका अप्रिय भी निश्चय ही कम है।
- प्रियं ब्रूयादकृपण:।[5]
अपने अंदर दीनभाव न लाते हुये प्रियवचन बोलें।
- नाप्रियो लभते फलम्।[6]
जो प्रिय नहीं होता उसे फल नहीं मिलता।
- अप्रियं यस्य कुर्वीत भूयस्तस्य प्रियं चरेत्।[7]
यदि किसी का अप्रिय कार्य कर दें तो पुन: उसका प्रिय करें।
- कुर्यात् प्रियमयाचित:।[8]
बिना किसी की याचना या प्रार्थना के ही सबका प्रिय कार्य करें।
- धर्माणामविरोधेन सर्वेषां प्रियमाचरेत्।[9]
धर्मो का उल्लंघन न करते हुये सब का प्रिय कार्य करें।
- कारणात् प्रियतामेति।[10]
किसी कारण से ऋजु प्रिय लगता है।
- प्रियं हि हर्षजननं हर्ष उत्सेकवर्धन:।[11]
प्रिय से हर्ष होता है और उससे अभिमान बढता है।
- प्रियाप्रिये स्वं वशमानयीत।[12]
प्रिय और अप्रिय को अपने वश में करें।
- प्रियाणि लभते नित्यं प्रियद: प्रियकृत् तथा।[13]
प्रिय वस्तु देने और प्रिय कार्य करने वाले को सदा प्रिय पदार्थ मिलते हैं।
- अप्रिय: सर्वभूतानां हीनायुरुपजायते।[14]
सभी प्राणियों के अप्रिय मनुष्य का जीवन लम्बा नहीं होत।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 36.4
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 39.3
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 60.7
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 137.17
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 70.4
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 87.20
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 93.8
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 93.9
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 120.25
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 138.151
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 286.17
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 299.7
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 59.8
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 144.52
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