सुख (महाभारत संदर्भ)

  • स्वसंतुष्ट: स्वधर्मस्थो य: स सुखमेधते।[1]

अपने धन से संतुष्ट और अपने धर्म में स्थित रहने वाला सुख पाता है।

  • मुहूर्त सुखमेवैतत् तालच्छायेव हैमनी।[2]

शीतकाल में होने वाली ताड़ की छाया की भाँति दो घड़ी का सुख है।

  • वर्तमान: सुखे सर्वो मुह्यति।[3]

सुख में लीन रहने वाले सभी मोहित हो जाते हैं।

  • सुखं सुखेनेह न जातु लभ्यम्।[4]

इस संसार में सुख से कभी सुख नहीं मिलता। (दु:ख सहकर मिलता है)

  • न ह्यनंत सुखं कश्चित् प्राप्नोति।[5]

ऐसा सुख किसी को नहीं मिलता जिसका अंत ही ना हो।

  • सुखमापतितं सेवेद् दु:खमापतितं वहेद्।[6]

सुख मिले तो उसका उपभोग करें और दु:ख आ पड़े तो उसे सहन करें।

  • कुत: सुखमनीहया:।[7]

बिना चेष्टा के सुख कहाँ?

  • ऋणं धारयमाणस्य कुत: सुखम्।[8]

जिसने ऋणं ले रखा है उसे सुख कहाँ?

  • दु:खार्तिप्रभवं सुखम्।[9]

दु:ख की जो पीड़ा होती है उससे सुख उत्पन्न होता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सभापर्व महाभारत 54.6
  2. सभापर्व महाभारत 80.50
  3. वनपर्व महाभारत 181.30
  4. वनपर्व महाभारत 234.4
  5. वनपर्व महाभारत 259.14
  6. वनपर्व महाभारत 259.15
  7. उद्योगपर्व महाभारत 107.6
  8. उद्योगपर्व महाभारत 107.6
  9. शांतिपर्व महाभारत 25.22

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